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ब्रम्ह को प्राप्त करने के तरीके

जीवन का लक्ष्य क्या है मानव जाती के लिए ब्रम्ह को कैसे समझे

प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रम्ह है।

बाह्य एवं अंत प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रम्ह भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। 

कर्म उपासना मन संयम अथवा ज्ञान इनमे से एक एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर,

 अपना ब्रम्ह भाव व्यक्त करो और स्वतंत्र हो जाओ। 

बस यही धर्म का सर्वस्व है।  मत , अनुष्ठान , पद्धति , शास्त्र , मंदिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया कलाप तो उसके गौण

अंग - प्रत्यग मात्रा है।।

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प्रेम के कई प्रकार

श्रद्धा , प्रेम , और स्नेह में अंतर क्या है

श्रद्धा प्रेम और स्नेह तीनो एक ही धातु के है यहाँ शब्द शास्त्र के धातु से हमारा तात्पर्य नहीं है , हमारा तात्पर्य भाव शास्त्र से है।

ह्रदय का झुकाव एक ऐसा धातु है जो पदों के प्रति होने से श्रद्धा बराबरी में होने से प्रेम , तथा छोटे के प्रति होने से स्नेह कहा जाता है।

श्रद्धा और स्नेह के बिच में जो यह प्रेम शब्द है बड़ा समर्थ है।  यह सबके लिए पर्याप्त है और यदि हम एक शब्द से काम चलाना चाहे तो

प्रेम को ले सकते है।।

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प्रेम से संसार है

प्रेम करने का आसान तरीका

अच्छाइयों को लेकर ही समन्वय हो सकता है ,बुराइयों को लेकर कभी एकता नहीं हुई है ।

अतएव जितने व्यक्तियों से आपका संपर्क हो उनसे एकता बनाए रखने के लिए उनकी अच्छाइयों को देखना तथा उनके प्रति

अगाध प्रेम का भाव रखना ही अत्यंत श्रेयस्कर है।

जैसे की दो व्यक्ति दो वातावरण एवं अलग संस्कारो में जन्मे होते है , फिर दोनों के सारे विचार व्यव्हार सर्वथा एक कैसे हो सकता है।

ऐसी स्थिति में दोनों की केवल सारी बातो को लेकर समन्वय कर लेने के अतिरिक्त एकांत के लिए और क्या चारा हो सकता है  ।

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संसार संगीत से है

जीवन में संगीत का महत्व

मानव ह्रदय पर संगीत का इतना प्रबल प्रभाव पड़ता है की वह क्षण भर में चित्त की एकाग्रता ला देता है ,

आप देखेंगे की जड़ ,अज्ञानी ,नीच, और पशु वृति वाले मनुष्य जो अपने मन को क्षण भर के लिए भी स्थिर नहीं कर सकते,

वे भी मनोहर संगीत का स्मरण करते ही त्वरण मुग्ध हो जाते है।

 सिंह , स्वान , मदार, सर्प श्वादिक पशुवो के भी मन संगीत द्वारा मोहित हो जाता है।

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भगवन कहा रहते है ?

भगवान का घर भक्त का ह्रदय है

भक्ति के महान आचार्य नारद से भगवन कहते है , हे नारद न मै वैकुण्ठ में ही रहता हु, और न मै योगियों के ह्रदय में ही रहता हु,

मै तो जहा मेरे भक्तगण मेरी स्तुति का गान करते  है, मै वही रहता हु।   

नाइ तिष्ठामि वैकुण्ठे योगिनं हृदयेन च।

मद्भक्ता यत्र गायत्रीं तत्र तिष्ठामि नारद।।

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